जीवन एक पहेली है,
समझो इसे।
जीवन एक उलझन है,
जानो इसे।
हर वक्त सोचते हैं,
क्यों चलना शुरू किया,
कब तक चलते रहेंगे यूं ही।
न राह का पता है,
न मंजिल का।
घर से निकले थे जब,
जानते थे कहाँ जाना है,
मंजिल भी निगाहों में थी,
राह का भी पता था।
पर चार कदम चलते ही,
जाने क्या हो गया,
कि,
विस्मृत हो गयी मंजिल,
भूल गये रास्ता।
आज भटकन है,
भ्रम है,
रास्ते कई है,
मंजिल नदारद हैं।
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'बुधवार' १७ जनवरी २०१८ को लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना .
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब ,रास्ते कई हैं ,बहता जल और इच्छाशक्ति अपना रास्ता ढूँढ ही लेते हैं ।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही है।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद।
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