अंधेरा

शहर में हर तरफ एक खामोशी थी,
देखा मैंने जिधर भी,
छाया था सिर्फ अंधेरा।
नहीं था ऐसा कोई,
मिटा पाता जो,
उस अंधेरे को।
खोजा मैंने बहुत,
पर मिला नहीं कोई।
था ही नहीं कोई उस शहर में,
जो मिलता मुझे वहां।
थक गया जब मैं खोजते खोजते,
आयी एक आवाज पीछे से-
''लौट जाओ मुसाफिर,
ये शहर नहीं है दया के काबिल।
यहां के वासियों ने ही किया था अंधेरा,
खुद अपने शहर में।
और खो गए वे ही,
उसी अंधेरे में।''

6 टिप्‍पणियां:

  1. चिट्ठों की दुनियाँ में आपका स्वागत है। लिखते रहें। निरंतरता के साथ। शुभकामनाएं। ब्लॉग फौलोवर गैजेट बटन उपलब्ध करायें ताकि छपने की सूचना प्राप्त होती रहे ।

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    1. उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद सर!

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