क्यों ले रही हो इम्तिहान,
मेरे सब्र का।
रह पाओगी दूर कब तक,
मुझसे तुम!
और,
रह लो शायद तुम तो।
पर,
भला रह पाऊंगा कैसे,
लम्बे समय तक,
दूर मैं तुमसे।
क्यों आ जाती हो,
जब तब निकलकर,
अतीत के पन्नो से,
सामने मेरे,
कभी किस रूप रूप में,
तो कभी किस रूप में।
याद है आज भी,
आयी थी तुम,
सामने मेरे,
हंसती हुई,
फूलो सी महकती हुई!
फिर एक दिन,
खो गयी जाने कहाँ।
खोजा बहुत मैंने,
मिली भी।
पर,
बदल चूका था,
रूप तुम्हारा।
आत्मा वही थी,
पहचान लिया मैंने,
यह तुम ही थी,
यह तुम ही थी।
एक बार फिर,
कर दिया मैंने,
समर्पित तुमको,
जीवन अपना सारा।
और फिर,
हुआ जाने क्या,
कि,
खो गयी तुम फिर से।
निकल पड़ा,
एक बार फिर मैं,
तलाश में तुम्हारी।
और,
कितनी अजीब बात है!
एक बार फिर,
मिल गयी मुझको तुम।
पर,
बदल चूका था,
रूप तुम्हारा फिर से।
अब भी,
आत्मा वही थी,
और,
पहचान लिया तुमको मैंने,
एक बार फिर से,
यह तुम ही थी,
यह तुम ही थी।
बार- बार आती हो,
कभी हंसाती,
कभी रुलाती हो।
पर समझ नहीं पाता मैं,
क्यों बार-बार मुझे,
छोड़कर चली जाती हो।
चल रहा है,
कई सालो से,
हमारे बीच यह खेल
कभी छिप जाती हो तुम,
और ढूंढता फिरता हूँ तुमको,
यहाँ से वहाँ।
कभी-कभी होता है ऐसा,
कि,
छिप जाता हूँ मैं भी,
और ढूंढती फिरती हो मुझको,
यहाँ से वहाँ।
क्यों होता है ऐसा,
कब तक बदलती रहोगी रूप अपने,
कब तक भागती रहोगी,
इस कदर,
अपने आप से।
जानता हूँ,
क्या सोचती हो तुम,
क्या चाहती हो तुम,
क्या महसूस करती हो तुम।
पर,
लगता है जाने क्यों ऐसा,
जैसे चल रहा हूँ,
गलत राह पर मैं।
और शायद,
लगता होगा तुमको भी,
की,
हो तुम स्वयं गलत राह पर।
लेकिन,
क्या सही है ये?
सोचो,
चिंतन करो।
इंसान गवाह है,
अपनी अच्छाई का,
अपनी बुराई का,
अपनी निर्मलता का,
अपनी मलिनता का।
पूछो अपने ह्रदय से,
क्या कहता है यह?
क्या लगता है अब भी,
है गलत राह पर हम?
अगर है यथार्थ में ऐसा ही,
तब तो,
व्यर्थ है मेरा लेखन,
व्यर्थ है मेरी भावनायें,
और,
सम्भवतः व्यर्थ है हमारी मित्रता।
अगर कहता है तुम्हारा हृदय,
नहीं है गलत राह पर हम।
तब,
सार्थक है मेरा लेखन,
सार्थक है मेरी भावनायें,
और,
निःसंदेह सार्थक है हमारी मित्रता ।